जिसे न कभी देखा, न सोचा दृश्य अकल्पित फिर से बिठाना पड़ता है जिन्हें धरती पर उगते फूल की तरह जैसे यह कविता यात्रा में चलती ही रहती है रुक-रुक कर / चट्टान से लड़ चोरी से पराजित हो सोच में पहुँचती है शिखर पर अमोल-सी हर बार उठाता हूँ कलम पर शब्द नहीं चित्रित होती है / एक नदी लहरों के नर्तन में फिर बन जाती है बसन्त